परिषद् यानी राष्ट्रवाद

 

गिरयस्ते पर्वतः हिमवन्तोऽरण्यं पृथिवि स्योनमस्तु

(अर्थात् हे पृथ्वी ! तेरे पर्वत, तेरे हिमावृत शैल, तेरे अरण्य सुखदायक हों)

 

उदीराणा उत्तासीनास्तिष्ठतः प्रक्रामन्तः ।

पदभ्यां दक्षिणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम्।

(अर्थात् उठते हुए, बैठते हुए, खड़े हुए और दक्षिण तथा वाम पैरों से बढ़ते हुए हम भूमि को पीड़ा न पहुँचाएँ।

अपनी मातृभूमि के प्रति यह रेशम से कोमल उद्‌गार भारतीय मनीषा द्वारा दी गई राष्ट्रवाद की सार्वकालिक प्रगतिशील परिभाषा है) राष्ट्र के प्रति प्रेम की इससे सुंदर अभिव्यक्ति शायद ही दुनिया के किसी साहित्य में हो | 

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वास्तव में देखा जाए तो राष्ट्रवाद एक ऐसी सामूहिक भावना है, जिससे किसी भी देश के लोग एक सूत्र में बँधे होते हैं और अपने सभी प्रकार के मतभेदों को भुलाकर राष्ट्र की उन्नति और सुरक्षा में लगे रहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी देश का अपने शत्रु देश से युद्ध चल रहा होता है तो संघर्ष के उस काल में राष्ट्र के आम नागरिक भी एकजुट होकर अपनी सरकार और सेना का समर्थन करते हैं तथा मनोबल बढ़ाते हैं। इसके पीछे कहीं-न-कहीं वही राष्ट्रवाद की भावना काम कर रही होती है। इतना ही नहीं, कुछ लोगों में यह भावना इतनी तीव्र होती है कि वे राष्ट्र के लिए अपनी जान भी दे देने में नहीं हिचकिचाते। किसी बड़े देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले नागरिक भले ही एक-दूसरे से अपरिचित हों, परंतु राष्ट्र के अस्तित्व के प्रश्न पर यह अपरिचय झट समाप्त हो जाता है और अपने राष्ट्र से संबंधित मुद्दों पर वे सर्वसम्मति विकसित कर लेते हैं अथवा गंभीर विचार-विमर्श कर एक निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करते हैं। यह राष्ट्रवाद ही है, जब हम विदेश में प्रवास कर रहे होते हैं और वहाँ कोई अपने देश का मिल जाता है तो अपरिचित होते हुए भी उसके प्रति हम आत्मीयता महसूस करने लगते हैं। यह एक स्थूल अनुभव कहा जा सकता है राष्ट्रवाद की भावना का, परंतु है वह राष्ट्रवाद ही।

 

यह राष्ट्रीय भावना समय-समय पर विविध रूपों में हमारे भीतर से प्रस्फुटित होती रहती है। जैसे- हमारे भीतर प्रेम, ममता, क्रोध, घृणा, परोपकार, लोभ आदि भावनाएँ एक साथ विद्यमान रहती हैं और परिस्थिति के अनुसार उनकी अभिव्यक्ति हो जाती है, उसी प्रकार राष्ट्र के साथ भी प्रेम की एक भावना लगातार हमारे हृदय में विद्यमान रहती है। कोई उसकी तीव्रता को महसूस करता है और अभिव्यक्त हो जाता है तथा कोई उसे अपने भीतर बलात् दबाकर रखता है। ऐसा वह दूसरी विचारधारा के प्रभाव में आकर करता है। यह उसका स्वाभाविक रूप नहीं होता। किसी लोभ, अवसर या स्वार्थ के वशीभूत होकर वह अपने राष्ट्रप्रेम की भावना को दबाता है और दूसरे की वैचारिकी को ओढ़ लेता है। दर्शन का एक सिद्धांत है कि जब हम किसी वस्तु के अस्तित्व को नकार रहे होते हैं, उसी समय हम उसे मजबूती से स्वीकार भी कर रहे होते हैं। यानी पहले आपके भीतर उसके अस्तित्व का स्वीकार भाव है, तब उसे आप निरस्त करना चाह रहे हैं। अस्तित्व हो ही न, तो नकारना किसे ? राष्ट्रवाद की भावना का विरोध करने वालों के साथ भी यही दर्शन लागू होता है। किसी भी राष्ट्र की उन्नति और समृद्धि के लिए आवश्यक है कि उसके नागरिक अपने भीतर राष्ट्रवाद की भावना को सतत जीवंत रखें। शायद इसी भाव को जीवित रखने के लिए तमाम राष्ट्रीय चिह्न, राष्ट्र-गीत और राष्ट्रीय पर्वों का अस्तित्व किसी भी देश में होता है। किसी भी राजनीतिक या अन्य आयोजन के अवसर पर राष्ट्रगीत का गायन या ध्वज का सम्मान इसी भावना को अक्षुण्ण रखने का एक प्रयास है।

 

भारत की स्वाधीनता के बाद से (सन् 1947) 21वीं सदी के प्रारंभिक दशकों में कुछ प्रतिगामी तत्त्वों ने सुनियोजित षड्यंत्र के तहत भारतीय अस्मिता और सांस्कृतिक चेतना को खंडित करने के लिए राष्ट्रवाद शब्द का प्रयोग ऐसे संकुचित अर्थों में करना प्रारंभ किया कि उसने राष्ट्रवाद को एक बोझ की तरह राष्ट्र की एका भावना को पंगु बनाने का प्रयास किया, जिसके लिए हमारे देश के वीर सपूतों ने खूनी लड़ाई लड़ी थी और अपना सर्वोच्च बलिदान देकर भी राष्ट्र को पराधीनता से मुक्त कराया था। थोड़े से आत्मघाती आत्मनिंदक इन देश विरोधियों ने राष्ट्रवाद की भावना से खिलवाड़ करते हुए इसका उपयोग भारतीयों के बीच धर्म, जाति, भाषा और विचारधारा के आधार पर विभाजन करने वाले तत्त्व के रूप में किया।

जबकि सत्य यह है कि भारत में प्राचीन काल से ही राष्ट्रवाद की भावना 'वसुधैव कुटुम्बकम्' और मानवतावाद के सिद्धांत पर टिकी थी। जब हमारी ऋचाएँ बोलती हैं कि 'माता भूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः', तो यह भावना जाति, भाषा या विचारधारा के आधार पर समाज या राष्ट्र की तोड़ने की साजिश नहीं कही जा सकती। वास्तव में, यह हमारी संकुचित दृष्टि है, जिसने राष्ट्र-प्रेम को जाति, धर्म, संप्रदाय और भाषा के चश्मे से देखने का प्रयास किया है। राष्ट्र किसी धर्म या जाति से बिल्कुल अलग है, इसलिए राष्ट्रवाद की भावना शुद्ध रूप से राष्ट्र के प्रति प्रेम और उसकी प्रगति से जुड़ी है; राष्ट्र की पहचान से जुड़ी है। राष्ट्र की अस्मिता पर कोई आँच न आने पाए, इस पवित्र भावना की अभिव्यक्ति है राष्ट्रवाद।

 

इस ही राष्ट्रवाद को विद्यार्थियों से लेकर समाज तक वास्तविक रूप में गत 76 वर्षों से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ले जा रहा है । भारत की स्वाधीनता के तत्काल बाद ही छात्रों को संगठित कर उन्हें राष्ट्र-शक्ति के रूप में पुनस्र्थापित करने के अभियान की शुरुआत के साथ लगभग सात दशक की अपनी संगठनात्मक विकास-यात्रा में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक अलग प्रकार के छात्र-संगठन के रूप में आज प्रतिष्ठित है। अभाविप ने राष्ट्र, राज्य, देश, संस्कृति, सभ्यता और धर्म की कोई नयी परिभाषा नहीं प्रस्तुत की; अपितु वैभवशाली राष्ट्र के रूप में भारत को दुनिया के क्षितिज पर पुनः प्रतिष्ठित करना अपना लक्ष्य बनाया है। परिषद् के स्थापना वर्ष के शुरुवाती दौर में ही छात्रों के संबंध में जब यह प्रचलित मान्यता थी कि 'छात्र आज का नहीं, कल का नागरिक है' तब अभाविप ने वर्तमान युग के अनुसार छात्रों की 'नागरिक भूमिका' को पहचाना और प्रस्तुत किया और कहा कि 'छात्र कल का नहीं अपितु आज का नागरिक है' ऐसे विश्वास को लेकर अभाविप ने निरंतर निस्स्वार्थ भाव से राष्ट्र-सेवा करने हेतु तत्पर युवकों को प्रशिक्षित किया। 

 

अभाविप का राष्ट्रवाद से नाता ऐसा है जैसे "शरीर का प्राण से" । 

 

परिषद् के इतिहास पर आधारित पुस्तक ध्येय यात्रा में उल्लेखित है, सन् 1949 में परिषद् ने 24 जुलाई से 31 जुलाई तक देशभर में भारत भारती सप्ताह के नाम से व्यापक स्तर पर एक जनमत संग्रह अभियान किया अभाविप ने देश का नाम भारतवर्ष, राष्ट्रभाषा हिंदी अथवा हिंदुस्तानी, राष्ट्रगीत वंदेमातरम् या जन-गण-मन, संविधान की भाषा हिंदी अथवा अंग्रेजी, इन चार प्रश्नों पर किए गये 'जनमत-संग्रह' में 44 लाख 61 हजार 458 नागरिकों ने हिस्सा लिया। स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण में लगे 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' एवं भारतीय संस्कृतिनिष्ठ राष्ट्रीय स्वरूप के समर्थक लोगों के लिए उपर्युक्त जनमत-संग्रह अभियान महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। अभाविप द्वारा कराए गये ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व के जनमत-संग्रह अभियान से एक स्तर तक सहायता मिली और संविधान में 'भारत', 'हिंदी' एवं 'वंदेमातरम्' को स्थान मिला। यहीं परिषद् अर्थात् राष्ट्रवाद का प्रमाण है । 

 

भारत,भारतीय संस्कृति,स्वाभिमान, परंपरा और स्वायत्तता की रक्षा के लिए जितना बलिदान, जितना संघर्ष भारतीय महापुरुषों का रहा है,वैसा उदाहरण विश्व में कहीं और नहीं मिलता। परिषद् ने भविष्य के युवाओं में यह बलिदान,संघर्ष बार बार स्मृति होते रहे और स्मृति होकर राष्ट्र के लिए समयानुकूल प्रतिबद्ध रहे इस हेतु 1950 से ही रचनात्मक गतिविधियों को विस्तार देना प्रारंभ किया जिसमें महापुरुषों की जयंती विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्वामी विवेकानंद जयंती,बाबा साहब भीमराव अंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस,रानी लक्ष्मीबाई जन्म जयंती,लोकमान्य तिलक जयंती आदि विविध विषयों पर व्याख्यान मालाओं का आयोजन शुरू किया । इन रचनात्मक कार्यक्रमों में देश के ख्यातिलब्ध विद्वान् एवं नागरिक शामिल हुए। इनमें भारतीय सेना के प्रथम सेनाध्यक्ष जनरल के. एम. करियप्पा,भारत के तत्कालीन शिक्षामंत्री एवं प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. संपूर्णानंद, नागपुर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री ग.ब. भराड़कर, इतिहासकार सरदार के. एम. पणिक्कर के नाम उल्लेखनीय हैं।

आज अभाविप के 76 वर्ष बाद भी महापुरुषों के विचार,संघर्ष को विद्यार्थियों तक ले जाना किसी भी परिस्थिति में नहीं भूलती हाल ही में अभाविप का 70वां राष्ट्रीय अधिवेशन गोरखपुर में नवंबर माह के अंत में सम्पन्न हुआ है। गोरखपुर के कार्यकर्ता कई दिनों से अधिवेशन व्यवस्था में लगे थे किंतु अधिवेशन ओर अधिवेशन की व्यवस्थाओं के मध्य ही रानी लक्ष्मीबाई जयंती आई परिषद् के कार्यकताओं ने उसी व्यस्तता के मध्य सभी को एकत्रित कर व्यक्ता तय किया और रानी लक्ष्मीबाई जी के चित्र के साथ रानी लक्ष्मीबाई जी की जन्मजयंती उत्साह से मनाई यही राष्ट्रवादी आदर्श छात्रसंगठन के कार्यकर्ता की पहचान है। 

इतना ही नहीं कोरोना काल में भी आभासी रूप से परिषद् के वक्ताओं ने लाइव आकर अनेक महापुरुषों का संकट के समय राष्ट्र के साथ खड़े रहने की कहानी बताई । 

 

राष्ट्रीय संवेदना का विस्तार करते हुए अभाविप ने राष्ट्रीय एकात्मता के सूत्रों से परिचित कराने हेतु पूर्वोत्तर के विद्यार्थियों को देश के कोने कोने में प्रवास पर भेजकर अभाविप कार्यकताओं के आवास पर 4 दिवसीय निवास किया एवं उर्वरित भारत और पूर्वोत्तर के बीच उत्पन्न संवादहीनता की स्थिति और दूरी को समाप्त कर आत्मीय संवाद प्रारंभ किया।  और वर्ष 1966 में विभिन्न भाषा-भाषी राज्यों के छात्र-समुदाय में राष्ट्रीय एकीकरण की मूल भावना को प्रकट करने वाला अति महत्त्वपूर्ण प्रकल्प 'अंतरराज्य छात्र जीवन-दर्शन (SEIL: Students' Experience in Inter-State Living)' प्रारंभ हुआ। यह अनूठा प्रयास राष्ट्रीय एकात्मता-अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए किसी छात्र संगठन द्वारा की गयी एक गंभीर सकारात्मक पहल थी। पूर्वोत्तर की राष्ट्रविरोधी शक्तियाँ जो राष्ट्रीय एकात्मता में खंडित करने का प्रयास उस दौर में चरम पर कर रही थी उस समय अभाविप का अंतरराज्य छात्र जीवन-दर्शन SEIL "हम सब एक हैं सांस्कृतिक रूप से भी समान हैं', यह भावना उत्पन्न करने में सफल रहा।  इस प्रकल्प के अंतर्गत पूर्वोत्तर के 78 छात्र-छात्राओं के दल की पहली यात्रा

31 मई, 1966 को मुंबई आई। दल के स्वागत में 'भारतमाता की जय' और 'अलग भाषा अलग वेश, फिर भी अपना एक देश' के नारे लगे। यह नारे भी परिषद् यानी राष्ट्रवाद के उदाहरण है। 

 

इतना ही नहीं घाटी के भयानक आतंकवाद के विरुद्ध आवाज उठाकर जम्मू कश्मीर को अलग करने वाले संविधान 370 को हटाने की राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाई। 370 धोखा है कश्मीर बचालो मौका है इस नारे को संकल्प में परिवर्तित कर देश के हजारों विद्यार्थियों का समूह निस्वार्थ भाव व असीम राष्ट्रप्रेम से ओत प्रोत हो कर देश की एकता के लिए 1990 को चलो कश्मीर का आह्वान किया तो यह जानते हुए भी कि लाल चौक पर तिरंगा फहराने की चुनौती स्वीकार करना सीधे मृत्यु को स्वीकार करने जैसा है, जम्मू में देश भर से 10,000 से भी अधिक छात्र-छात्राएँ पहुँच गये। उनमें लगभग 2,000 छात्राएँ थीं। वे लगातार उद्‌घोष कर रहे थे- 'जहाँ हुआ तिरंगे का अपमान, वहीं करेंगे उसका सम्मान', 'जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी-वह कश्मीर हमारा है, जो कश्मीर हमारा है-वह सारे का सारा है', 'खून भी देंगे, जान भी देंगे- देश की मिट्टी कभी न देंगे', 'कश्मीर हो या कन्याकुमारी- भारतमाता एक हमारी'। यह नारे ही आज भी रक्त में राष्ट्रवाद का संचार करने हेतु पर्याप्त है। अभाविप के कश्मीर आंदोलन को लेकर 13 सितंबर, 1990 को 'नवभारत राइम्स' ने अपने संपादकीय में लिखा- "जब देश का प्रधानमंत्री और कोई भी राजनेता श्रीनगर जाने का साहस न जुटा पा रहा हो, तब अभाविप के बैनर तले 10,000 छात्रों का लाल चौक तक मार्च करने का फैसला गांधीवादी समाधान का नया संस्करण माना जाएगा। हम यह मानकर चलते हैं कि इस मार्च के जरिए छात्र कोई राजनीति नहीं कर रहे हैं। जयप्रकाश आंदोलन से लेकर असम आंदोलन तक छात्रों ने सरकार को नींद से जगा सकने की क्षमता दिखाई है। दूसरे नेता भी राजनीति की अलकापुरी से बाहर निकल खतरे उठा कर क्यों नहीं इस मुहिम को आगे बढ़ाते ?"

दैनिक तरुण भारत, मुंबई ने अपने संपादकीय में विद्यार्थी परिषद के पुरुषार्थपूर्ण संघर्ष के लिए अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त की और अभाविप की प्रशंसा करते हुए कहा, "पाकिस्तान की धमकी के बावजूद विद्यार्थी परिषद ने लाल चौक पर तिरंगा फहराने का संकल्प लेकर कूच किया है, वह देश का ऐसा संघर्षशील और प्रभावी संगठन बन गया है, जो छात्रों के आत्मबल को पहचानता है। पाकिस्तान द्वारा बिछाए बारूद और अंगारों पर चल कर कश्मीर के लिए कूच करने वाले इस क्रांति-सूर्य को हार्दिक शुभकामनाएँ।"

प्रिंट मीडिया में इस प्रकार का उल्लेख आना ही प्रमाण है परिषद् यानी राष्ट्रवाद। 

 

 76 वर्ष के इतिहास में 'अभाविप' ने राष्ट्र की अस्मिता, उसकी भावात्मक सूत्रबद्धता तथा राष्ट्र की भू-सांस्कृतिक एकता के सरंक्षण तथा संवर्धन के लिए अनवरत प्रयास किए है। इस राष्ट्र के जन की सुरक्षा, उसके जीवन-मूल्यों का स्वाभिमान, उसके संस्कारों व परंपरागत आस्थाओं का प्रश्न अभाविप के लिए कोई नीतिगत कार्यक्रम नहीं, वरन् यह सब उसकी प्रतिबद्धता एवं श्रद्धा के बिंदु हैं। असम, पंजाब, कश्मीर, दार्जिलिंग, लद्दाख अथवा तीन बीघा, कहीं से भी जुड़ा प्रश्न या संकट हो, अभाविप अपने संकल्प की प्रेरणा से स्वतः ही उस दिशा में कार्यशील हो जाती है। जिस प्रकार मानव शरीर के किसी भी अंग पर चोट लगने अथवा उसकी आशंका होने की स्थिति में संपूर्ण शरीर स्वतः ही तत्क्षण उसका प्रतिरोध या रक्षण करता है। उसे किसी बाह्य आज्ञा की प्रतीक्षा या आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार अभाविप ने भारत राष्ट्र के साथ अपने आपको एकात्म कर लिया है। प्रत्येक वह संकट, जो देश की अस्मिता, अस्तित्व एवं गौरव के लिए चुनौती बनता, अभाविप कार्यकर्ता अपनी योग्य भूमिका निभाने के लिए तत्पर हो जाते हैं। वस्तुतः परिषद-कार्यकर्ताओं ने अपनी निस्स्वार्थ प्रतिबद्धता और शिव-संकल्प की प्रेरणा से राष्ट्र पर आई प्रत्येक विपत्ति में प्राण देकर भी साहसिक व ऐतिहासिक भूमिका निभायी है। 

 

अभाविप ने 1971 में अपने 19 वें राष्ट्रीय अधिवेशन में शैक्षिक परिसरों में बढ़ते नक्सलवादी हमलों पर प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस और साम्यवादी गठबंधन द्वारा दिल्ली, बनारस, अलीगढ़, जोधपुर और केरल विश्वविद्यालयों में किए गये तत्कालीन हिंसक हमलों को गंभीर मानते हुए चेताया कि देश के किसी भी भाग में ऐसे हमलों से हमारे राष्ट्रनिष्ठ युवा आतंकित नहीं होंगे और भविष्य में पूरे देश में तत्काल प्रतिक्रिया भी व्यक्त करेंगे, अब अभाविप आतंकित करने वाले इन तत्त्वों को कुचल देगी। अभाविप ने वर्ष 2014 में नक्सली हिंसाचार के विरुद्ध पुनः अपनी आवाज बुलंद करते हुए अभाविप ने तत्कालीन नक्सली माओवादी गतिविधियों को समाप्त करने हेतु केंद्र सरकार से प्रभावी अभियान चलाने की माँग रखी। प्रस्ताव में महानगरों के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से नक्सल समर्थक प्राध्यापकों के पकड़े जाने की घटनाओं की गंभीरता को समझते हुए इस बात की आवश्यकता अनुभव की कि चरणबद्ध अभियान चला कर एक निश्चित समय सीमा में भारत को नक्सल-मुक्त बनाए जाने की मांग की। 

 

वर्ष 1978 में आपातकाल के बाद की स्थितियाँ और समय की पकार विषय पर चर्चा करते हुए अभाविप ने राष्ट्रीय संक्रमणकालीन समीकरणों के संदर्भमें व्यापक चिंतन किया। अभाविप ने इमरजेंसी के उपरांत जनता सरकार द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनः स्थापना के लिए उठाए गये कदमों की एक ओर प्रशंसा की तो दूसरी ओर भविष्य में सत्ता के दुरुपयोग तथा अधिनायकवादी तत्त्वों के पुनः उभार से सचेत भी किया। तत्कालीन परिस्थितियों का आकलन करते हुए अभाविप ने आपातकाल के दोषियों के प्रति सरकार के क्षमाशील रवैया के कारण जनता के मोहभंग की ओर संकेत करते हुए लोकतंत्र को सुदृढ़ करने हेतु युवा-वर्ग से संघर्षशील बने रहने का आह्वान किया। 

अभाविप ने अधिवेशनों एवं राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद् बैठकों में अपने प्रस्तावों के मध्यम से राष्ट्रीय सुरक्षा,राष्ट्रीय अस्मिता पर समय समय पर मुखरता से अपनी बात रखी और उस पर काम भी किया। 1980 अभाविप के 26 वें राष्ट्रीय अधिवेशन रायपुर तत्कालीन परिस्थितियों में अभाविप ने प्रस्ताव में राजनीतिक भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार करते हुए कहा गया कि राजनीतिक भ्रष्टाचार सभी भ्रष्टाचारों का मूल है। अभाविप ने देश में बढ़ रहे आर्थिक असंतुलन, कालाधन, जातिवाद, सामाजिक कुप्रथाओं, विभाजक शक्तियों, विदेशी षड्यंत्रों, बेरोजगारी इत्यादि विषयों पर विचार किया और कहा कि वर्तमान ढाँचे में समाज का हर व्यक्ति हताश है। इसी क्रम में अभाविप ने व्यापक बुनियादी परिवर्तन की आवश्यकता का अनुभव करते हुए देश भर में 'लोक अभियान सप्ताह' (20 जनवरी से 26 जनवरी, 1982) मनाने का निर्णय लिया।  

अभाविप के अब तक के सभी प्रस्तावों को पढ़कर ध्यान में आता अभाविप शैक्षणिक व्यवस्थाओं में सुधार से लेकर राष्ट्र की सुरक्षा तक दूरगामी सोच रखकर कार्य कर रही है। ऐसा अन्य किसी छात्र संगठन में संभव नहीं है। 

यही कार्यशैली परिषद् को राष्ट्रवाद का पर्याय बनाती है। 

 

परिषद् का अपने प्रस्तावों में राष्ट्रीय सुरक्षा पर चिंता व्यक्त करते एवं उस पर साहसिक कार्य करना यह केवल 76 वर्ष इतिहास तक सीमित नहीं है हाल ही मैं परिषद् ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद् बैठक में एक बार पुनः भारत की आंतरिक सुरक्षा हेतु सरकार की तत्परता एवं समाज की सजगता आवश्यकता ऐसा प्रस्ताव पारित किया है। आज ऑपरेशन सिंदूर के काल में भारत ने अपने सैन्य बल,अदम्य साहस एवं सशक्त नेतृत्व से पाकिस्तान पर विजय प्राप्त करते हुए भारतीय सीमा को ओर सुदृढ़ तो किया है। किंतु वहीं दूसरी ओर भारत के भीतर माओवादियों, रोहिंग्या एवं बांग्लादेशी घुसपैठ, पाकिस्तान के लिए जासूसी और बंगाल में लोकतंत्र एवं संवैधानिक मूल्यों की हत्या भारत की आंतरिक सुरक्षा हेतु चुनौती है यह बताया है। परिषद् ने इस वर्ष भी अपने प्रस्ताव के माध्यम से देशवासियों से आह्वान किया है कि वे समाज में विभेद उत्पन्न करने वाले समस्त कारकों यथा जाति,पंथ,भाषा तथा क्षेत्र से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए कटिबद्ध रहें और भारत की आंतरिक सुरक्षा को बनाए रखने हेतु सतत् सक्रिय एवं जागरूक रहें। 

यही परिषद् यानी राष्ट्रवाद का संदेश है ।  

 

राष्ट्रवाद रागतत्त्व से अनुप्राणित एक विचारधारा है, जो किसी भी देश के नागरिकों की साझा अस्मिता की पहचान होती है। यह वही भावना है, जो एक ही राष्ट्र में विविध भाषाओं, वर्गों और संस्कृतियों को एक सूत्र में जोड़ते हुए उसे राष्ट्र-प्रेम की ओर उन्मुख करती है। किसी भी देश की प्रगति अथवा विकास इसकी बात में निहित होता है कि उसके नागरिक अपने देश के प्रति कितने समर्पित और निष्ठावान हैं। यह समर्पण एवं लगाव स्वाभाविक होता है और इसका पोषण तथा विकास परिवार से लेकर समाज और शिक्षालयों तक किया जाता है। जिस प्रकार हमारी नदियों, जंगलों, पहाड़ों, समुद्रों आदि से हमारा सहज संबंध होता है, संस्कृति और प्राकृतिक परिवेश से अटूट नाता होता है,उसी प्रकार हमारा संबंध अपनी मातृभूमि, जिसे राष्ट्र या देश नाम से एक भौगोलिक और राजनीतिक सीमा में हम बाँधते हैं उस से भी सहज संबंध होता है। हम अपने देश को उसी तरह जानते हैं, जैसे अपनी माँ को जानते हैं। अलग से किसी परिचय की आवश्यकता नहीं होती। हमारे यहाँ तो कहा भी गया है- 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादिपि गरीयसी।' अर्थात् माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।

 

 9 जुलाई 2025 को अभाविप अपना 77 वां स्थापना दिवस मना रहा है। ऐसे तो राष्ट्रवाद को समझने के आज कई पहलू हैं। एक सरसरी दृष्टि में देखा जाए तो सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से राष्ट्रवाद विश्व के सभी राष्ट्रों में व्याप्त है। किंतु विद्यार्थी जीवन से ही राष्ट्रवाद को समझना है तो परिषद् का कार्यकर्ता बन समझा भी जा सकता है और राष्ट्र के लिया जिया भी जा सकता है। 

 

(यह लेख शालिनी वर्मा, राष्ट्रीय मंत्री अभाविप द्वारा लिखा गया है)